Friday, February 15, 2008

कुछ भी नही

दोस्ती के नाम पर ऐसा भी यहाँ खेल हुआ
ज़माने को कही मेरी दास्ताँ , मुझसे कहा कुछ भी नही

देखा मुझे , सोचा मुझे , टोका मुझे , रोका मुझे
मेरी खता है हर मेरी अदा , तेरी खता कुछ भी नही

ख़ुद की जलन से ही ख़ुद का चमन जला लिया
जब आग पर कागज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नही

हर शाम तक हर सुबह तक हमे ही वह समझाते रहे
हमे दिए इतने वचन , ख़ुद ने किया कुछ भी नही

दूसरो की कब्र खोदने का शौक रहा है तुम्हे बोहोत
अब ख़ुद ही जो जा गिरे , क्या हल रहा कुछ भी नही

दो चार दिन की बात नही जो चाहेरा देख कट जायेंगे
दिल की बाजी जब लगी , तुमको मिला कुछ भी नही

No comments: