Friday, August 6, 2010

Kumaar barabanki

मुझको शिकस्त-ऐ-दिल का मज़ा याद आ गया
तुम क्यों उदास हो गए तुम्हे क्या याद आ गया

कहने को ज़िन्दगी थी बोहत मुख़्तसर मगर 
कुछ यु गुज़र हुई कि खुदा याद आ गया

बरसे बगैर जो घटा घिर के खुल गयी
एक बेवफा का अहदे ऐ वफ़ा याद आ गया

मांगेंगे अब दुआ के उसे भूल जाए हम 
लेकिन जो वो बा-वक़्त-ऐ-दुआ याद आ गया

हैरत तुमको देख के मज्जिद में ऐ कुमार 
क्या बात हो गयी जो खुदा याद आ गया



अब आंसू संभलते नहीं है संभाले
तुम्हारी अमानत तुम्हारे हवाले 



वही फिर मुझे याद आने लगे है
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे है 

ना हारा है इश्क और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है हवा चल रही है

सुकून ही सुकून है ख़ुशी ही ख़ुशी है
तेरा गम सलामत मुझे क्या कमी है

वो मौजूद है और उनकी कमी है
मोहब्बत भी तन्हाई ये दायमी है

खटक गुदगुदी का मज़ा दे रही है
जिसे इश्क कहते है शायद यही है 

चरागों के बदले मकां जल रहे है
नया है ज़माना नयी रौशनी है 

मेरे राहबर मुझे गुमराह कर दे
सुना है के मंजिल करीब आ गयी है 


1 comment:

PS said...

Thank you Abhilasha!