Tuesday, October 28, 2008

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाये कहाँ जा के नहाया जाए

मेरा मकसद है महफ़िल रहे रोशन यूँ ही
खून चाहे मेरा दीपो में जलाया जाए

मेरे दुःख दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
में कहूँ खा और तुझसे भी न खाया जाए

जिस्म दो हो के भी दिल हो एक अपने ऐसे
मेरा आंसू तेरी आँखों से उठाया जाए

गीत गुमसुम है ग़ज़ल चुप है रुबाई है दुखी
ऐसे माहोल में नीरज को बुलाया जाया

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